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किरीटी ( Hindi )

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रोटेरिया

किरीटी (रोटिफ़ेरा, Rotifera) स्वतंत्र रूप से रहनेवाले छोटे-छोटे प्राणी हैं। इनके शरीर के अगले भाग में एक रोमाभ (Ciliary) अंग होता है, जिसके रोमाभ इस तरह गति करते हैं कि देखनेवाले को शरीर के आगे चक्र (पहिया) चलता मालूम पड़ता है। इसीलिये इन्हें पहिएदार जंतु (ह्वील ऐनीमलक्यूल, Wheel animalcule) कहते हैं। अंग्रेजी नाम रोटिफ़ेरा का यही तात्पर्य हैं। इसीलिए इस वर्ग का नाम रोटिफ़ेरा या रोटेटोरिया रखा गया है।

किरीट अधिकतर साधारण स्वच्छ (अलवण) जल में रहते हैं। कुछ खारे पानी में रहते हैं और कुछ समुद्र में भी पाए जाते हैं। कुछ पृथ्वी पर नम स्थानों पर रहते हैं और कुछ काई (Moss) के पौधे की पत्तियों के अक्ष में रहते हैं। कुछ किरीटी परोपजीवी भी होते हैं। एक जाति घोंघा (Snail) के अंडों पर परोपजीवी होती है। इस तरह किरीटी ने विभिन्न प्रकार के निवासस्थान अपना रखे हैं। इनका वितरण भी विस्तृत है। ये संसार के सभी कोनों में पाए जाते हैं।

बाह्य लक्षण

किरीटी मेटाज़ोआ में काफी छोटे जंतु हैं। इनकी लंबाई .04 से 2 मिलीमीटर तक होती हैं, परंतु अधिकतर किरीटी .5 मिलीमीटर से लंबे नहीं होते। ये प्रोटोज़ोआ से बड़े नहीं होते, इसलिए प्रारंभ में लोग इनको भी प्रोटोज़ोआ मान बैठे थे। इतने छोटे होते हुए भी इनके शरीर के भीतर अनेक जटिल इंद्रियतंत्र होते हैं, जिन्हें बिना सूक्ष्मदर्शी यंत्र से नहीं देखा जा सकता।

किरीटी का शरीर लंबाकार होता है। अध्ययन के लिए उसे तीन भागों में विभाजित किया जाता हैं। पहला, आगे का चौड़ा भाग हैं जिसपर रोमाभ अंग होता हैं। इस भाग को सर कहते है और रोमाभ अंग को मुकुट (कॉरोना, Corona)। सर के बाद का लंबा भाग धड़ कहलाता है और तीसरे भाग को दुम (या फुट भी) कहते हैं। साधारणत: किरीटी ऐसे ही होते हैं, परंतु कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने विशेष रूप धारण कर लिए हैं। कुछ थैली के आकार के होते हैं, कुछ गोल होते हैं (जैसे ट्रोकोस्फ़ियरा, Trochosphaera) और कुछ चौड़े होते हैं (जैसे ब्रैकियांसी, Brachioncy) और कुछ लंबे पतले होते हैं, जैसे (रोटेलिया, Rotalia)। कुछ किरीटियों का प्याले जैसा शरीर एक लंबे डंठल द्वारा पृथ्वी से जुड़ा रहता हैं। यदि किरीटी का शरीर आड़ा काटकर देखा जाए तो प्राय: गोल दिखाई पड़ेगा, परंतु कुछ किरीटियों में पार्श्वीय तथा कुछ में प्रतिपृष्ठीय दीवारें चिपटी होती हैं। अधिकतर किरीटी द्विपार्श्व सममिति (Bialateral Synmetry) वाले होते हैं, परंतु कुछेक बाहरी अंगों के कारण असममित मालूम पड़ने लगते हैं। उदाहरण के लिये किसी में पैर की दो अंगुलियों में से एक लंबी और एक छोटी होती हैं। कुछ किरीटियों का शरीर प्रतिपृष्ठीय दीवार की ओर झुका रहता है और किसी में पूरा शरीर सर्पिल होता हैं।

शरीर हलके पीले रंग के आवरण, बाह्यत्वक्‌ या क्यूटिकिल (Cuticle) से ढका रहता है। बाह्यत्वक कुछ कड़ा होता है, इसीलिये शरीर का इधर-उधर मुड़ना संभव नहीं होता। इसीलिए कोशिकाभित्ति में प्राय: वलय होते हैं। कभी कभी वलय इतने गहरे होते हैं कि शरीर खंडदार मालूम होने लगता है। कुछ किरीटियों के धड़ का बाह्यत्वक्‌ विशेषकर अधिक मोटा और कड़ा हो जाता है। इसको लौरिका कहते हैं। विपत्ति के समय शरीर का आगे का भाग लौरिका के भीतर समा जाता हैं। लौरिका का बाह्यत्वक्‌ सादा होता है या उसपर षट्कोणीय अथवा अन्य नमूने बने रहते हैं।

किरीटी के शरीर के आगे के भाग को केवल सुविधा के लिए सर कहा जाता है। यह चौड़ा होता है और सामने चपटा। कभी कभी सामने का बीच का भाग उभड़ा रहता हैं। इसके चारों ओर रोमाभ होते हैं। रोमाभयुक्त भाग को मुकुट कहते हैं और उसके मध्य के रोमाभविहिन भाग को ऐपिकल फील्ड (Apical field)। ऐपिकल फ़ील्ड पर अनेक उभड़े अंग दिखलाई देते हैं। इनमें से कुछ ऐसे होते है जिनपर नीचे स्थित ग्रंथियों की नलिकाएँ खुलती हैं और कुछ संवेदक होते हैं जिनपर कड़े बाल होते हैं। अधिक किरीटियों में मुकुट गोलाकार होता है। कुछ जंतुओं में यह दो पिंडकों (लोब्स, lobes) में बँटा रहता है। डंठल से पृथ्वी पर अनुरक्त रहनेवाले किरीटियों में मुकुट प्याले की शक्ल का होता है और उसका स्वतंत्र भाग कई पिंडकों में विभाजित रहता हैं। डेलायड में द्विपिंडकी (बाइ लोब्ड, bilobed) मुकुट के बीच में एक प्रमुख उभाड़ होता है, जिसका उपयोग वह पृथ्वी या पौधे आदि की सतह पर चलनें में करता हैं। इस उभाड़ को रोस्ट्रम कहते हैं।

कारोना के रोमाभ एक साथ इस प्रकार गति करते हैं कि सामने पानी की लहरें बन जाती हैं। यह जल की लहरें खाद्य पदार्थ के जल में तैरते हुए टुकड़े मुँह तक ले आती हैं और खाद्य पदार्थ या तो मुँह में चला जाता हैं या उसे मुखांग पकड़ लेते हैं। अनेक किरीटियों में रोमाभ भोजन प्राप्त करने के मुख्य साधन होते हैं और अन्य सभी किरीटियों में ये भोजनप्राप्ति में सहायता देते हैं। मुकुट द्वारा पैदा की गई जल की लहरों से अन्य लाभ भी हैं। ये जानवरों के चारों ओर का पानी बदलती रहती हैं जिससे जानवर को ताजा आक्सिजन मिलता रहता हैं। स्वतंत्र रूप से तैरनेवाले किरीटियों में रोमाभ उन्हें तैरने में सहायता देते हैं। जल की लहरें शरीर के निकट एकत्र हुए उत्सर्जित (एक्स्क्रीटरी, excretory) पदार्थ बहा ले जाती हैं।

मुँह मुकुट के मध्य में प्रतिपृष्ठीय रेखा की ओर होता है। इसके नीचे का ऐपिकल फील्ड का भाग कुछ उठा रहता है, मानो वह निचला ओठ हो। किसी किसी किरीटी के ऐनिकल फील्ड में आँखें भी होती हैं। अधिकतर किरीटियों में आँखें मस्तिष्क पर स्थित होती हैं। आँखें या तो दो होती हैं या एक। किसी किरीटि में आँख तुंड (रोस्ट्रम, rostrum) पर भी स्थित होती है। आँख देखने में छोटे लाल चिह्न की भाँति होती हैं।

धड़ लंबाकार होता है या अनेक प्रकार से चपटा। यह सादा होता है या वर्मिका (Lorica) युक्त। वर्मिका सादी होती है या उसपर अनेक नमूने बने रहते हैं। किसी किसी में वर्मिका पर काँटे भी होते हैं। पैडलिया नामक किरीटी पर बड़े बड़े काँटे होते हैं जो शरीर के चलायमान पिंडकों पर स्थित रहते हैं। धड़ पर कुछ विशेष स्पर्शांग होते हैं। इनमें एक जोड़ा शरीर के दोनों बगल में होता हैं। इसे पार्श्वीय श्रृंगिका पृष्ठीय (लैटरल ऐंटेनी, lateral antennae) कहते हैं। एक श्रृंगिका पृष्ठीय तल पर होती हैं। इसे पृष्ठीय श्रृंगिका (डॉरसल ऐंटेना, dorsal antenna) कहते हैं। जिस स्थान पर धड़ और दुम मिलते हैं वहाँ मध्यपृष्ठीय (मिड-डॉर्सल, mid-dorsal) रेखा पर मलद्वार या गुदा स्थित हैं। धड़ पीछे की ओर पतला होता जाता हैं और दुम में मिल जाता है। कुछ किरीटियों में, विशेषकर मुकुटयुक्त किरीटियों में, धड़ और दुम बिल्कुल अलग मालूम पड़ते हैं।

कुछ किरीटियों में दुम छोटी और कुछ में बड़ी होती हैं। दुम के बाह्यत्वक्‌ पर गहरे वलय होते हैं जिससे वह कई खंडों की बनी हुई मालूम पड़ती है। किरीटी दुम की सहायता से तल पर रेंगते हैं और तैरते समय दुम पतवार का कार्य करती हैं। पृथ्वी से जुड़े रहनेवाले किरीटी में दुम लंब डंठलाकार हो जाती है और जंतु को पृथ्वी से जोड़े रहती हैं। दुम के अंत में एक से चार तक नन्हें नन्हें चलायमान अंग होते हैं। जिन्हें अंगुली या टो (toes) कहते हैं। ये छोटे, तिकोने होते हैं, या पतले, लंबे काँटे जैसे। अंगुलियों के सिरों पर दुम के भीतर स्थित ग्रंथियों की नलिकाएँ खुलती हैं। ये ग्रंथियाँ चिपचिपा पदार्थ पैदा करती हैं, जो चलते (रेंगते) समय अंगुलियों को सतह से चिपकाने करता हैं।

किरीटी प्राय: पारदर्शी होते हैं। कोई कोई कुछ हलके पीले लगते हैं। यह इसलिए कि बाह्यत्वक्‌ या बाहरी आवरण का रंग पीला-सा होता है। भूरे, लाल या नारंगी रंग के किरीटी भी मिलते हैं। यह रंग खाए हुए भोजन का होता है जो पारदर्शी से झलकता हैं।

किरीटी में लैंगिक द्विपरूता (सेक्सुअल डाइमॉर्फ़िज्म, Sexual dimorphism) भी मिलती हैं। केवल दो वर्गों (प्लायमा और सीयसोनेशिया) में नर तथा नारी दोनों एक जैसी होती हैं। शेष सब में नर छोटा और नारी बड़ी होती हैं। नर की बनावट भी साधारण होती हैं। डेलायड नामक एक गण (ऑर्डर) के किरीटियों में नर मिलते ही नहीं। केवल नारियाँ पाई जाती हैं और इनमें अनिषेकजनन (पारथिनाजेनिसस, Parthenogenesis) द्वारा बच्चे पैदा होते हैं।

आंतरिक रचना

शरीर की दीवार तथा आंतरंगों के बीच के स्थान को स्यूडोसीलोम (Pseudo-coelome) कहते हैं। केंचुए या मेंढक जैसे जानवरों में इस स्थान का सीलोम (Coelome) कहते हैं। सीलोम में शरीर की दीवार के अंदर की ओर मध्यजनस्तर (मीसोडर्म, Mesoderm) की एक परत होती है और उसी की एक परत आंतरगों पर। इस तरह सीलोम मध्यजनस्तर के बीच की गुहा है और स्यूडोसीलोम में मध्यजनस्तर की परतें नहीं होती। स्यूडोसीलोम एक तरल पदार्थ से भरी रहती हैं। इसमें कुछ बड़ी-बड़ी शाखादार कोशिकाएँ (सेल) भी होती हैं। इसमें शाखाएँ एक पतला जाल-सा बना डालती है। ये कोशिकाएँ कदाचित्‌ कीटाणुओं को खा डालती हैं। इसलिए इनको फ़ैगोसाइट (Phagocyte) कहते हैं। कुछ लोगों का यह भी विचार है कि यह उत्सर्जन में सहायता देती हैं।

पाचनांग

मुंह से प्रारंभ होकर आहारनाल गुदा पर बाहर खुलती है। मुँह पतले मुख नाल (बकल ट्यूब, Buccal tube) में खुलता है और मुखनाल ग्रसनी (फ़ैरिन्स, Pharynx) में। किरीटी की ग्रसनी सारे जंतुजगत्‌ में विलक्षण है। यह बड़ी मांसल थैली होती है। इसके भीतर का अस्तर, जो बाह्यचर्म का बना होता है, भोजन चबाने का एक जटिल उपकरण है। इसके मैस्टैक्स कहते हैं। इस उपकरण के सात भाग होते हैं जिन्हें ट्राफ़ाई (Trophi) कहते हैं। जीवित अवस्था में ट्रोफ़ाई प्राय: सदा गति करते हैं और पृष्ठी प्राणियों के दिल (हृदय) की भाँति मालूम पड़ते हैं। साधारण व्यक्ति इसके हृदय समझ बैठते हैं। ट्रोफ़ाई जबड़ों का कार्य करते हैं। भोज्य पदार्थ, जो करते हुए जबड़ों की लहरों के साथ आकर आहारनाल में पहुँच पिस जाते हैं। ग्रसनी की दीवार से लारग्रंथियाँ संबंधित होती हैं। यह पाचक लार को आहारनाल में पहुँचाती हैं। यह रस पिसते हुए भोज्य पदार्थ से मिलकर पाचन क्रिया पूरा करता हैं। ग्रसनी ग्रासनली (ईसोफ़ेगस, Oesophagus) में खुलती है। इसकी लंबाई भिन्न-भिन्न किरीटियों में भिन्न-भिन्न होती है। ग्रासनली आमाशय में खुलती है। यह चौड़ी थैली की भाँति होती है। आमाशय पीछे की ओर पतला होता जाता है और आंत्र (इंटेस्टाइन, Intestine) में परिवर्तित हो जाता है। आंत्र के अंतिम भाग को प्राय: अवस्कर (Cloaca) कहते हैं। इसलिए कि इसमें उत्सर्गी तंत्र की नलिकाएँ और अंडवाहिनी (ओविडक्ट, Oviduct) खुलती हैं।

श्वसन (रेस्पिरेशन, Respiration)

श्वसन के लिए किरीटी में विशेष अंग नहीं होते। शरीर के चारों ओर जल रहता हैं। इसी जल में घुले हुए आक्सिजन का शरीर की दीवार की कोशिकाओं में विसरण (डिफ्यूजन, Diffusion) हो जाता हैं।

उत्सर्जन (Excretion)

नाइट्रोजन-युक्त मल को बाहर निकालने के लिए किरीटी में उत्सर्जन तंत्र होता है। दो मुख्य उत्सर्जन नलिकाएँ होती हैं, जो शरीर के पार्श्वीय भागों में होती हैं। आगे से एक दूसरी से जुड़ी रहती हैं। इन उत्सर्जन नलिकाओं को प्रोटोनेफ्रडियल, (Pretonephridal) नलिका कहते हैं। प्रत्येक प्रोटोनेफ्रडियल नलिका में दो से क. स्टेफ़ैनोसिरॉस (Stephanoceros) नामक किरीटी। यह एक स्कंध द्वारा पृथ्वी में चिपका रहता है और स्कंध पैर की ग्रंथियों से निकले हुए रस की बनी थैली से ढका रहता है। ख. टाइगुए, स्कंधवाला किरीटी। इसके स्कंध पर एक अंडा चिपका हुआ है। ग. लिमनियास (Limnias) इसका वलय (Corona) द्विपिंडकीय है। घ. अनेक लिमनियास एक दूसरे के साथ समूह में। ङ. पेडैलिया (Pedalia) इसका शरीर कई चलायमान पिंडकों से बना होता है। इन पिंडकों पर लंबे-लंबे काँटे होते हैं। च. डेलायड (Bdelloid) का आगे का भाग (बगल से)। इसमें तुंड (रोस्ट्रम) स्पष्ट है। ज. शरीर की दीवार की काट (सेक्शन)। झ. पैर या दुम। इसके अंदर ग्रंथियाँ हैं, जिनकी नलिकाएँ बाहर की ओर खुलती हैं; अंगुलियाँ भी स्पष्ट हैं। आठ तक फ्लेम बल्ब नामक अंग खुलते हैं। लट्टू जैसे ये अंग स्यूडोयीलोम के तरल पदार्थ से नाइट्रोजन युक्त पदार्थ सोख लेते हैं और उसे प्रोटोनेफ्रडियल नलिका द्वारा बाहर निकाल देते हैं। दोनों तरह की नलिकाओं से मिलकर एक नली बनती हैं, जो क्लोएका में खुलती है और क्लाएक बाहर खुलती है।

तंत्रिकातंत्र (Nervous System)

मस्तिष्क की प्रतिनिधि एक बड़ी द्विपिंडकीय गुच्छिका बाइलोब्ड गैंग्लिऑन (Bilobed ganglion) है, जो ग्रसनी (मैस्टैक्स, Mastax) के पृष्ठीय ओर रहती है। इससे अनेक तंत्रिकाएँ निकलती हैं, जो शरीर के विभिन्न भागों में संबंध स्थापित करती है। तंत्रिका तंत्र शरीर की गति तथा अन्य क्रियाओं और अभिक्रियाओं पर नियंत्रण रखता है।

किरीटी के शरीर में अनेक प्रकार की ज्ञानेंद्रियाँ होती हैं। इनमें आँखें प्रमुख हैं जिनका उल्लेख पहले हो चुका है। इनका कार्य प्रकाश बोध। लगभग सभी किरीटियों में पार्श्वीय श्रृंगिकाएँ होती हैं। इसी तरह पृष्ठीय तल पर मस्तिष्क के ऊपर एक, या एक जोड़ी श्रृंगिका होती है। इसे पृष्ठीय श्रृंगिका कहते हैं। मुकुट (कारोना) पर भी अनेक ज्ञानेंद्रियाँ होती हैं, विशेषकर हाइडेटाइना (Hydatina) और सिनचीटा आदि में।

जननांग (रिप्रॉडक्टिव आर्गन्स)

नर और नारी अलग अलग होते हैं। अधिक संख्या में नारियाँ दिखलाई देती हैं। नर केवल प्रजनन काल में ही दिखलाई पड़ते हैं। नर मादा से 1। 10 छोटे होते हैं। मादा का जननपिंड एक अंडाशय है। इससे एक नली, अंडावाहिनी, निकलकर क्लाएका में खुलती है। किसी किसी डेलायड में अंडाशय का एक जोड़ा होता है। नर जननपिंड एक बड़ी थैली जैसा वृषण (टेस्टिस, Testes) होता है। इससे एक नली बाहर खुलती है। इस नली को श्रुकवाहिनी कहते हैं। शुक्रवाहिनी की नली में अंदर रोमाभ होते हैं। उसमें एक जोड़ा (या अधिक) प्रोस्टेट ग्रंथियाँ खुलती हैं। शुक्रवाहिनी का अंतिम भाग ऐसा होता है कि वह उलटकर बाहर निकल आता है और मैथुन के लिए सिर्रस (Cirrus) का कार्य करता हैं।

मैथुन के समय सिर्रस नारी के क्लोएका में डाल दिया जाता है और शुक्राणु वहाँ छोड़ दिए जाते हैं। किरीटी में इस यथाक्रम ढंग का उपयोग कम जंतु करते हैं। अधिक संख्या में किरीटी सिर्रस को शरीर की दीवार फाड़कर भीतर डाल देते हैं और स्यूडोसील में शुक्राणु छोड़ते हैं। इस क्रिया को हाइपोडर्मिक इप्रेग्नेशन कहते है।

शुक्राणु अंडे के परिपक्व होने के पहले उसमें प्रवेश कर जाते हैं। उसके बाद अंड का आवरण कड़ा हो जाता है और प्राय: काँटेदार, दानेदार या अन्य नमूनेवाला हो जाता है। संसेचन के अनंतर परिवर्धन प्रारंभ होता हैं। कुछ समय उपरांत नन्हें बच्चे निकलते हैं। स्वतंत्र रूप से तैरनेवाले किरीटियों में बच्चे रूप रंग एवं आकार में वयस्कों जैसे होते हैं। वे कुछ ही दिनों में परिपक्व हो जाते हैं। नर जन्म के समय ही परिपक्व होते हैं, इसीलिए जितने बड़े इस समय होते है जीवन भर उतने ही बड़े रहते हैं। डंठल से जुड़े रहनेवाले किरीटियों के बच्चे भी स्वतंत्र रूप से तैरनेवाले होते हैं। कुछ समय बाद अपने पाद (फुट) की सहायता से वे तल से लग जाते हैं और पाद लंबा होकर डंठल बना देता हैं।

वर्गीकरण

किरीटी या रोटिफेरा वर्ग (क्लास, class) के जीवों को तीन गणों में विभाजित किया गया है। इनके नाम हैं सीयसोनिडा, डेलॉयडिया और मॉनोगोनौंटा। इनमें से अंतिम गण में सबसे अधिक किरीटी हैं। इनमें सबसे कम विकसित सीयसोनिडा समुद्र में रहनेवाले किरीटी का छोटा गण है। डेलॉयडिया अधिकतर देखने में आते हैं। इनका मुकुट परावर्ती (रिट्रैक्टाइल, Retractile) होता है और दो पिंडकों में विभाजित रहता हैं। इनमें पर नहीं होते, केवल नारियाँ मिलती हैं। इनमें प्रजनन अनिषेकजनन क्रिया द्वारा होता हैं, अर्थात्‌ परिवर्धन, के लिये अंडे को संसेचन की आवश्यकता नहीं होती। शेष सब तैरनेवाले, अर्थात्‌ डंठल द्वारा पृथ्वी से जुड़े रहनेवाले, किरीटी मॉनोगोनौंटा गण में हैं। इनमें नर छोटे होते हैं और उनके एक वृषण होता हैं। यह गण तीन उपकरणों में विभाजित हैं। इनके नाम हैं:

(क) प्लायमा, अर्थात्‌ तैरनेवाले प्राणी;

(ख) फ्लोर-कूलेरियेमिया, तैरनेवाले या पृथ्वी से जुड़े किरीटी; और

(ग) कौलोथिकेशिया, अधिकतर पृथ्वी से जुड़े रहनेवाले किरीटी, जिनका अगला भाग प्याले के आकार का होता है, केंद्रीय मुँह होता है तथा प्राय: रोमाभ के स्थान पर कॉरोना में बड़े-बड़े अचलायमान काँटे होते हैं।

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किरीटी (रोटिफ़ेरा, Rotifera) स्वतंत्र रूप से रहनेवाले छोटे-छोटे प्राणी हैं। इनके शरीर के अगले भाग में एक रोमाभ (Ciliary) अंग होता है, जिसके रोमाभ इस तरह गति करते हैं कि देखनेवाले को शरीर के आगे चक्र (पहिया) चलता मालूम पड़ता है। इसीलिये इन्हें पहिएदार जंतु (ह्वील ऐनीमलक्यूल, Wheel animalcule) कहते हैं। अंग्रेजी नाम रोटिफ़ेरा का यही तात्पर्य हैं। इसीलिए इस वर्ग का नाम रोटिफ़ेरा या रोटेटोरिया रखा गया है।

किरीट अधिकतर साधारण स्वच्छ (अलवण) जल में रहते हैं। कुछ खारे पानी में रहते हैं और कुछ समुद्र में भी पाए जाते हैं। कुछ पृथ्वी पर नम स्थानों पर रहते हैं और कुछ काई (Moss) के पौधे की पत्तियों के अक्ष में रहते हैं। कुछ किरीटी परोपजीवी भी होते हैं। एक जाति घोंघा (Snail) के अंडों पर परोपजीवी होती है। इस तरह किरीटी ने विभिन्न प्रकार के निवासस्थान अपना रखे हैं। इनका वितरण भी विस्तृत है। ये संसार के सभी कोनों में पाए जाते हैं।

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